रीवा का सफ़ेद बाघ: असली कहानी और मोहन की विरासत
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मोहन का जीवन और विरासत
27 मई 1951 को महाराजा मार्तंड सिंह ने रीवा के जंगलों में एक सफ़ेद बाघ को पकड़ा। इस बाघ का नाम रखा गया मोहन। मोहन की सबसे बड़ी खासियत उसका शुद्ध सफ़ेद रंग और नीली आंखें थीं। यह रंग सामान्य बाघों से पूरी तरह अलग था। मोहन को गोविंदगढ़ महल में रखा गया और वहां से इसकी कई संताने हुईं। यही संताने आगे चलकर सफ़ेद बाघों की नस्ल बन गई। मोहन के कारण आज लगभग सभी सफ़ेद बाघों की वंशावली इसी से जुड़ी है। इसलिए मोहन को "दुनिया का पिता सफ़ेद बाघ" कहा जाता है।मोहन की संतानों ने सफ़ेद बाघों को कैद में संरक्षित करने में भी मदद की, क्योंकि जंगली जंगल में उनका अस्तित्व मुश्किल था। मोहन की विरासत आज भी रीवा और मुकुंदपुर में जीवित है।
सफ़ेद बाघ की आनुवंशिक विशेषताएँ
सफ़ेद बाघ प्राकृतिक रूप से लेउसिज़्म (leucism) के कारण सफ़ेद रंग का होता है। यह अल्बिनो नहीं होता। सफ़ेद बाघ पैदा होने के लिए दोनों माता-पिता में रीसिव जीन होना जरूरी है।
मोहन और उसकी संतानों के कारण सफ़ेद बाघों की यह नस्ल बनी। हालांकि, सफ़ेद बाघों की संख्या बनाए रखने के लिए अक्सर इनब्रिडिंग किया गया। इसके कारण कई स्वास्थ्य समस्याएँ भी देखी गईं, जैसे हृदय रोग और दृष्टि संबंधी परेशानियाँ। फिर भी, मोहन की वंशावली ने सफ़ेद बाघों की विरासत को आज तक सुरक्षित रखा।
मुकुंदपुर सफ़ारी और संरक्षण
आज रीवा के पास मुकुंदपुर सफ़ारी है, जिसे दुनिया की पहली सफ़ेद बाघ सफ़ारी माना जाता है। यहाँ मोहन की संतानों और अन्य जानवरों को प्राकृतिक वातावरण के करीब रखा गया है।सफारी का मुख्य उद्देश्य मोहन की वंशावली और आनुवंशिक विविधता को सुरक्षित रखना है। यह सफारी पर्यटकों और प्रकृति प्रेमियों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है।मुकुंदपुर सफ़ारी में सफ़ेद बाघों की संख्या बढ़ाने, उनकी देखभाल और संरक्षण के लिए वैज्ञानिक तरीके अपनाए जाते हैं। यह केंद्र सफ़ेद बाघों की विरासत को आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने का काम करता है।

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