जैसलमेर की सरहद पर ज़िंदगी: आखिरी गाँव की कहानी, जो सबको जाननी चाहिए
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गजुओं की बस्ती: सीमा पर बसता है असली भारत
गाँव में पक्के मकान बहुत कम हैं। अधिकांश लोग मिट्टी और झोपड़ीनुमा घरों में रहते हैं। बिजली, पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं की यहाँ भारी कमी है। पीने के पानी के लिए महिलाओं को कई किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है। बच्चों के लिए स्कूल की दूरी अधिक होने के कारण शिक्षा भी एक बड़ी चुनौती है। लेकिन इसके बावजूद, यहाँ के लोग न तो पलायन करते हैं और न ही शिकायत करते हैं। उनके अंदर देशभक्ति की भावना इतनी प्रबल है कि वे हर कठिनाई को गर्व से सहन करते हैं।
इन गाँवों की एक खास बात यह है कि यहाँ हर नागरिक, चाहे वह किसान हो या महिला, सीमा पर तैनात बीएसएफ जवानों को अपने परिवार का हिस्सा मानता है। तानोट माता मंदिर जैसे स्थान, जो सीमा से सटे हैं, धार्मिक आस्था और देश की सुरक्षा भावना का प्रतीक बन चुके हैं। जब भी देश में कोई तनाव
की स्थिति होती है, इन सीमावर्ती गाँवों के लोग विशेष सावधानी बरतते हैं, लेकिन उनका आत्मविश्वास कभी नहीं डगमगाता।हालांकि सरकार द्वारा स्मार्ट विलेज और बॉर्डर एरिया डेवलपमेंट जैसी योजनाएँ चलाई जा रही हैं, लेकिन इन दूर-दराज़ के गाँवों तक उनका प्रभाव बहुत धीमा पहुंच रहा है। सड़कें अभी भी कच्ची हैं, स्वास्थ्य सुविधाएं ना के बराबर हैं और रोजगार के विकल्प सीमित हैं। यदि सरकार इन गाँवों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने में गंभीरता दिखाए, तो यहाँ का जीवन भी बेहतर हो सकता है।
इन गाँवों में जाकर महसूस होता है कि असली भारत अब भी वहीं बसा है — जहां लोग कम में जीना जानते हैं, देश के लिए जीते हैं और हर सुबह सीमा पर तिरंगे को देखकर अपने होने पर गर्व महसूस करते हैं। जैसलमेर की रेतीली धरती पर बसे ये आखिरी गाँव केवल भौगोलिक बिंदु नहीं, बल्कि हमारी राष्ट्रीय अस्मिता के जीवंत उदाहरण हैं।
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