राजकुमार ने जबसे कैमरा फेस किया,फिर पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा
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उनकी पहली फिल्म "रंगीली" (1952) थी, लेकिन उन्हें पहचान मिली फिल्म "मदर इंडिया" (1957) और फिर "दिल एक मंदिर" (1963) जैसी फिल्मों से।राजकुमार का अभिनय पारंपरिक नायकों से अलग था। वे नाचते-गाते नायक नहीं थे, लेकिन उनकी गम्भीरता, डायलॉग डिलीवरी और राजसी चाल-ढाल ने उन्हें दर्शकों के बीच बेहद लोकप्रिय बना दिया।
उनकी आवाज़ गहरी और भारी थी, जो हर संवाद को असरदार बना देती थी। जब वे कहते थे —
"जानी, ये चाकू है। लग जाए तो खून निकल आता है,"
तो न केवल दृश्य जीवंत हो उठता था, बल्कि दर्शक उनके हर शब्द को महसूस करते थे।राजकुमार
राजकुमार ने करीब 70 से अधिक फिल्में कीं और उनमें से कई आज भी क्लासिक मानी जाती हैं:
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मदर इंडिया (1957) – एक भावनात्मक और सामाजिक फिल्म जिसमें उन्होंने एक मजबूत सहायक भूमिका निभाई।
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दिल एक मंदिर (1963) – डॉक्टर का किरदार निभा कर उन्होंने दिल छू लिया।
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वक़्त (1965) – यश चोपड़ा की इस मल्टीस्टारर फिल्म में उनका अंदाज़ सबसे अलग नजर आया।
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हीर रांझा (1970) – इस फिल्म की खास बात यह थी कि इसमें पूरे संवाद काव्यात्मक शैली में थे, और राजकुमार ने इसे जीवंत कर दिया।
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पाकीज़ा (1972) – एक संजीदा भूमिका में उनका शालीन अभिनय फिल्म को और ऊँचाई पर ले गया।
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सौदागर (1991) – दिलीप कुमार के साथ उनकी जोड़ी ने दर्शकों को रोमांचित कर दिया।
राजकुमार अपने स्वाभिमान के लिए भी जाने जाते थे। उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में "शायराना अंदाज़" और "बेबाक़ व्यक्तित्व" वाला कलाकार माना जाता था।सेट पर वे बहुत अनुशासित रहते थे और कभी भी समझौता नहीं करते थे – न अपने अभिनय से, न अपने आत्मसम्मान से। वे पार्टीज़ से दूर रहते थे, लेकिन जब भी किसी समारोह में शामिल होते, सभी की नजरें उन्हीं पर होतीं।उनका पहनावा, चलने का अंदाज़, और बातचीत का तरीका इतना प्रभावशाली था कि लोग सिर्फ उन्हें देखने के लिए थियेटर जाते थे।राजकुमार को गले का कैंसर हो गया था, जिससे उनकी वही प्रभावशाली आवाज़ चली गई थी। यह एक बहुत बड़ा आघात था, क्योंकि उनकी आवाज़ ही उनकी पहचान थी।
उन्होंने 3 जुलाई 1996 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन उनका नाम, उनकी फिल्मों के माध्यम से आज भी जीवित है राजकुमार केवल एक अभिनेता नहीं थे, वे एक संस्कृति थे, जो अब लगभग लुप्त हो चुकी है।वे हमें सिखाते हैं कि अभिनय केवल संवाद बोलना नहीं होता, बल्कि संवादों में आत्मा भरना होता है।राजकुमार को भुलाना भारतीय सिनेमा के उस दौर को भुलाने जैसा है, जब कलाकार सिर्फ मनोरंजन नहीं, प्रेरणा भी देते थे।
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